Sunday, October 7, 2018

बघेल युगीन रीवा की साहित्य ,इतिहास ,पुरातत्व एवं संस्कृति

बघेल युगीन रीवा की साहित्य परंपरा

 बघेल युगीन संस्कृति, पुरातत्व एवं इतिहास शोध संगोष्ठी हेतु आलेेख।

बघेल युगीन रीवा की साहित्य परंपरा
                             
हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने हिन्दी साहित्य की लगभग सहस्त्र वर्षों की दीर्घ कालीन परम्परा तीन काल में विभाजित किया है- आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल।1 तदानुसार (1) आदिकाल 1000-1500 र्इ0 (2) मध्यकाल 1500-1800र्इ0  (3) आधुनिक काल1800 र्इ0 से प्रारंभ।2
विषयान्तर्गत अनुशीलन पर तथ्य उजागर होता है कि उक्त परंपरा का प्रारंभिक है मध्यकाल और रचना है 'दुर्गादास महापात्र —ति अजीत फते नायक रयसा। रचना काल —ति में उधृत नहीं है। आंकलन है
(क) रायसा रासो का संक्षिप्त संस्करण एवं शैली के रूप में दुर्गादास महापात्र व्दारा मूल घटना के कुछ दिनो बाद लिखा गया। इसका प्रकाशन और भी बाद में हुआ।(3)
(ख)....इससे जान पड़ता है कि ग्रंथ रचनाकाल युद्ध के दो साल के हेर फेर का है।4
(ग) उक्त युद्ध 4 दिसम्बर सन 1796 में हुआ था जो नैकहार्इ युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है।5
कवि दुर्गादास ने 'अजीत फते नायक रायसा की रचना हिरान्या वंश के राजाराम की आज्ञा से की। दृष्टव्य है उक्त ग्रंथ के छंद 40, 43 एवं 44।
 ग्रंथालोचन - बीर रस प्रधान रासों परम्परा से भिन्न इस ग्रंथ में डिंगल तथा ब्रज मिश्रित राजस्थानी भाषा का प्रयोग किया है, किन्तु क्रियापद बृज भाषा के हैं। अजीत फतेह का स्थार्इ भाव उत्साह है। रौद्र वीभत्स, अदभुत, भयानक का चित्रण, क्रोध, भय, विस्मय, जुगुप्सा जैसे स्थार्इ भाव परिपुष्ट रूप में मिलते हैं तथा अपुष्ट वीर रस का परिपोषण भी करते हैं।
एक बात छूटी जा रही थी, वजह महत्वपूर्ण रचनाओं का प्रभाव ही हो सकता है। राजा रामचन्द्र (1555-92 र्इ0) जो गहोरा का गौरव बढ़ा रहे थे 1563 र्इ0 में बांधवगढ़ आये, इसे राजधानी बनाकर इसी नाम से रियासत कायम की। 1555 र्इ0से 1562 र्इ0 तक ख्यात कलाकार तानसेन उनके दरबार में रहेे। उन्ही के दरबार में कवि माधव उरव्य भी रहे जिन्होने (1556 र्इ0) प्रशस्यात्मक महाकाव्य 'वीर भानूदय की रचना की। रामचन्द्र के पुत्र ने सन 1591 में इस ग्रंथ की प्रतिलिपि करार्इ थी।
रायल एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ता की पाण्डुलिपि क्र0 3109,'रामचन्द्रयश:प्रबन्ध को जतीन्द्र विमल चौधरी ने सन 1946 को प्रकाशित किया। अकबर से कालिदास की उपाधि पाने वाले कवि गोविन्द भÍ ने यह प्रशसित राजा रामचन्द्र को लक्षित कर लिखी है। इन्हे शाही कवि 'अक्कबरीय कालीदास गोविन्द भÍ कहा जाता है। इन्होने 'वीरभद्र चम्पू भी लिखा है।( प्रो0 अख्तर हुसैन निज़ामी : अजीत फते नायक रायसा बघेलखण्ड का आल्हा पृ.227)
ख्यात कवि विश्वनाथ जी की चौथी पुस्त में कवि नरहरि महापात्र जी हुये जो अकबर के दरबार में रहे किन्हीं कारणों से बांधवगढ़ आये थे जो अमरकंटक चले गये उनके पुत्र हरिनाथ तत्कालीन राजा रामचन्द्र के दरबार में आये और यह छन्द कहा :
काहू के करम उमरार्इ पातसार्इ रर्इ, काहू के करम राज राजनसो हेत है।
काहू के करम हय हांथी पर गने पुर, काहू के करम हेम हरिन सों नेत है।।
हरिनाथ जोर्इ जाहि के लिलार लीक, लीक, सोर्इ सोर्इ यहि दरबार आनि लेत है।
महाराज बांधव नरेश राम सिंह तेरे, कर के भरोसे करतारौ लिख देत है। 6
राजा रामचन्द्र के पुत्र वीरभद्र देव हुये (सन1554) सन 1577 में इन्होने काम शास्त्र पर 'कन्दर्पचूड़ामणि ग्रंथ की रचना की। इसे सन 1908 में महाराज व्यंकटरमण सिंह ने प्रकाशित कराया जिसका सम्पादन  'रीवा राज्य दर्पण के लेखक जीतन सिंह ने किया। पं0 सूर्यप्रसाद ने इसकी हिन्दी टीका(वेंकट रहस्य) लिखी। सन 1926 में यह संस्—त-पुस्तकालय लाहौर द्वारा भी प्रकाशित किया गया। वीरभद्र का राज्यकाल अल्प समय का था। इनकी अन्य रचना 'दशकुमार-पूर्वकथा-सार पाण्डुलिपि कलकत्ता में(क्र.जी.9368) सुरक्षित है। पधनाभ मिश्र —त 'वीरभद्रदेव चम्पू पधनाभ मिश्र द्वारा सन 1577 में रची गर्इ।(डा0 राजीवलोचन अग्नीहोत्री)
सन 1668 में कवि रूपणि मिश्र ने महाराजा भाव सिंह की आज्ञा से 'बघेलवंश वर्णनम रचना जो सोमदेव भÍ के कथा सरित्सागर की पाण्डुलिपि से प्राप्त की गयी थी, शुद्ध प्रति तैयार की। कवि रूपणि मिश्र ने महाराजा भाव सिंह की प्रशसित में 100 श्लोक स्वयं रच कर ग्रंथ के अन्त में जोड़ दिए। इस ग्रंथ की प्रतिलिपि कलकत्ता में (क्र. 5398) सुरक्षित है।
कवि हरिनाथ की छठवीं पीढ़ी में कवि शिवनाथ राम हुये। ये गंगा तट असनी नामक गाँव में निवास करते थे, रीवा आये। महाराजा अजीत सिंह ने इन्हें अपने दरबार में राज कवि बनाया और सिलपरी गाँव दिया। संभव है कि इनके वंश परम्परा के दुर्गादास महापात्र हैं, क्योंकि नरहरि दास जी के पितामह महाकवि धीरधर महापात्र जिन्हें महापात्र की पदवी आलाउद्दीन से मिली थी।7 धीरधर संस्कृत के प्रसिद्ध ग्रंथ 'साहित्य दर्पण के रचयिता थे। इनके वंशज ही सिलपरी ग्राम के पवार्इदार हुए और 'महापात्र या 'भÍ कुल नाम से जाने जाते हैं।
शिवनाथ राम जी के पुत्र अजबेश राम महापात्र हुये और वे महाराजा विश्वनाथ सिंह तथा महाराजा रघुराज सिंह के दरबार में रहे। संस्—त हो या हिन्दी साहित्य रीवा का योगदान पुष्कल और महान है। वैसे देखा जाये तो महाराजा जयसिंह से राजवंश की साहित्य परम्परा चलती है। महाराजा जयसिंह ने स्वयं बीस पुस्तकों की रचना की।8 इनमें 'हरिचरित चंदि्रका, तथा 'कृष्ण तरंगिनी सुन्दर कृतियाँ है और उस भकित उन्मेष से लिखी गर्इ हंै जो भकितकाल की प्रबल प्रवृति रही है।9
हिन्दी के प्रथम नाटक का मान 'आनन्द रघुनन्दन को मिला। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और कुँवर सूर्यबली सिंह ने तमाम सिथतियाँ स्पष्ट की है कि यह हिन्दी का प्रथम नाटक है। आंनन्द रघुनन्दन के रचयिता है महाराज विश्वनाथ सिंह इनका 1833 र्इ0 से 1854 र्इ0 तक राजकाल रहा। विश्वनाथ सिंह समन्वयवादी उन कवियों के श्रेणी में आते हैं जिनके मूर्धन्य कवि गोस्वामी तुलसीदास है।10 इनके द्वारा रचित निम्नलिखित ग्रंथ कहे जाते हैं - अष्टयाम आàकि, गीता रघुनन्दन शतिका, आनन्द रघुनन्दन (नाटक), उत्तम काव्य प्रकाश, रामायण, गीता रघुनन्दन प्रमाणिक, सर्व संग्रह, कबीर के बीजक की टीका, विनय पत्रिका की टीका, रामचन्द्र की सवारी, भजन, पदार्थ, धनुर्विध, परमतत्व प्रकाश, आनन्द रामायण, पर धर्म निर्णय, शानित शतक, वेदान्त पंचक शतिका, गीतावली पूर्वाध, ध्रुवाष्ठक, उत्तम नीति चंदि्रका, अबोध नीति, पाखण्ड खणिडनी, आदि मंगल, बसंत, चौतीसी, चौरासी रैमनी, ककहरा, शब्द, विश्व भोजन प्रसाद, ध्यान मंजरी, विश्वनाथ प्रकाश, परम तत्व, संगीत रघुनन्दन।11 इनका अधिकांश सहित्य उपदेशात्मक और वर्णनात्मक है।
मध्य युगीन हिन्दी सहित्य के प्रवाह में महाराजा विश्वनाथ सिंह नही बहें, उन्होने नाटक आनन्द रघुनन्दन की रचना की। कुँवर सूर्यबली सिंह ''यदि यह रचना काल के अनितम भाग मे न लिखा गया होता तो मध्यकाल रसात्मक अभिव्यकित की एक सश्क्त सरणि - श्रव्य काव्य से वंचित रह जाता, उसकी संपन्नता बाधित हो जाती। अत: विश्वनाथ सिंह ने मध्यकालीन साहित्य को अनुपम अद्वितीय रचना से संवारा है। 'आन्नद रघुनन्दन का रचना काल ग्रन्थ में अंकित नही है। विन्ध्य प्रादेशिक सहित्य सम्मेलन रीवा द्वारा प्रकाशित पत्रिका के सम्पदिकीय मे निर्माण तिथि का निर्धारण हुआ है,- 'आनन्द रघुनन्दन नाटक की रचना सम्वत 1800 से 1911 के मध्य कभी हुर्इ है। एक सौ ग्यारह वर्षो का अन्तराल मन को उद्वेलित किये रहा। खोज-बीन करते जानकारी मिली आनंद रघुनंदन हस्तलिखित पाण्डुलिपि से - इति श्री महाराज कुमार श्री बाबू साहब विश्वनाथ सिंह जूदेव कृति आनन्द रघुनंदन नाटक सम्पूर्ण समाप्त शुभमस्तु श्री राम, सुदि सुक्रे वौ संवत 1888 (सन 1831) को मुकाम बिजौरी बैठ लिखों।12 तदानुसार इस बात की पुषिट होती है कि विश्वनाथ सिंह ने आनंद रघुनंदन अपने राजकुमार काल में कभी लिखा जिसकी प्रतिलिपि 1831 र्इ0 में किसी ने किया। उनका जन्मकाल है  तिथि बैशाख शुक्ल 14 विक्रम संवत 1848 (1789 र्इ0) अत: 'आनन्द रघुनन्दन का रचना काल र्इ0 1831 के आस-पास होना विदित होता है। 'आनंद रघुनन्दन नाटक हिन्दी एवं संस्—त दोनो सूचियों में प्राप्त होता है किन्तु यह सत्य है कि पहले हिन्दी में ततपश्चात संस्—त अनुवाद हुआ। महाराजा विश्वनाथ सिंह ने सगुण और निगर्ुण की एक वाक्यता प्रतिपादित की ।''13
विश्वनाथ युग में सूफी संत शाह नज़फ अली खाँ का जि़क्र आता है, रायबरेली के पास सलोन गाँव में जन्म लिया जहाँ के 'पदमावत रचनाकार मलिक मोहम्मद जायसी हैं। खाँ साहब फारसी के ज्ञाता थे और फारसी की एक रचना रीवा की तुरकहटी में बैठ कर लिखी थी 'प्रेम चिंगारी। 14
महाराज जय सिंह —ष्णोंपासक थे और पुत्र महाराज विश्वनाथ सिंह रामोपासक हुए। महाराज रघुराज सिंह कृष्णोंपासक सिद्ध होते हैं। महाराज रघुराज सिंह का जन्म सन 1823 र्इ0 कार्तिक कृष्णपक्ष चार दिन गुरुवार को हुआ। कवि युगलेश ने कहा है ''जस प्रताप मंदिर कियो, विश्वनाथ महाराज, तापर कलसा ताहिको धरयो भूप रघुराज। हालाँकि नींव तो महाराज जय सिंह ने ही रखी और माहौल का भी प्रभाव पड़ा, क्योंकि राज दरबार में कर्इ विद्वान कवि आश्रय पाते थे। इनकी रचनाओं को देखा जाय और देखिये कि कितना विशिष्ट, वृहत और विशद है। समीक्षा आचार्य कुँवर सूर्यबली सिंह ने कहा कि ''महाराज रघुराज सिंह ने जिस मनोयोग से 'रामस्वयंबर में राम कथा गार्इ है उसी उन्मेष में 'रुकिमणी परिणय और 'आन्दाम्बुनिधि में —ष्ण कथा कही है। इस प्रकार उन्होने सिद्धांत और व्यवहार को एक कर दिया है जो मध्यकालीन कवियों में शायद ही कोर्इ कर सका हो।
'आनन्दाम्बुनिधी के बारे में बघेली गधकार रविरंजन सिंह ने लिखा है-''इस ग्रंथ से हिन्दी की एक बड़ी छतिपूर्ति हुर्इ है। इसके पूर्व हिन्दी प्रेमी श्रीमदभागवत की कविता का रसास्वादन करने से वंचित रह जाते थे। महाराज रघुराज सिंह रीतिकालीन प्रवाह में नहीं बहे। देखा जाय तो महाराज रघुराज सिंह मध्यकाल में शुरुआत से अन्त तक छाये रहे। सूरदास एवं तुलसीदास ऐसे दो चार कवि ही होंगे जिनके लिये काव्य साधन और साध्य दोनो था। रघुराज सिंह भी इन्ही में आते हैं, ये भक्त भी हैं और साहित्यकार भी। इनकी रचनायें कुछ एक को छोड़ कर, शुद्ध धार्मिक है। 'गंगा अष्टोत्तर शतक साहितियक स्त्रोत है और इसके जोड़ की एक ही रचना है-पदमाकर की ख्याति को उजागर करने वाली 'गंगालहरी।15
प्राप्त सूचियों के अनुसार महाराज रघुराज सिंह के सर्व ग्रंथों की संख्या 56 तक पहँुचती है। विद्वानों के मत से वह 28 से अधिक नहीं कही जाती है। 'रघुराज विलास लोक साहित्य का अच्छा उदाहरण है। तुलसीदास जी के 'रामलला नहछू और 'जानकी मंगल आदि का जो स्थान है लोक साहित्य में, वही स्थान है 'रघुराज विलास का। उनके बनरा, बधार्इ, होली आदि के पद गाँवों में आज भी सुनार्इ देते हैं।
महाराज रघुराज सिंह के राजकवि अजबेस राम जी रहे, जो फारसी और ब्रज के अच्छे ज्ञाता रहे। कवि अजवेश मध्यकाल को वीर काव्य देने वाले प्रसिद्ध कवियों में से थे। कवि अजवेश भÍ (महापात्र) ने बान्धव गद्दी के महाराजाओं की वंशावली लिखी है। इनके रचे छन्द -
                     संगर समत्थ सजो भूप विश्वनाथ सिंह वीरता को रूप खूब आनन लखात है।
    मारु बजे बाजे गाजे द्विरद दतारे भारे सुभट समूह सावधान दरसात है।।
   विक्रम विहद्द हिंदुवान हद्द अजबेश जय सिंह के नंद के अनंद अधिकात हैं।
  तरकात जात बंधु करकत जात फौज फरकत बाहु बाजी थरकत जात है।।
कवि अजबेश के पुत्र कवि सुखराम जी ब्रज एवं संस्—त के ज्ञाता थे और व्याकरण शास्त्र के पूर्ण पणिडत। ये महाराज रघुराज सिंह के दरबार में रहे। ये ब्रज भाषा में सुन्दर रचना करते थे और कविता में अपना नाम अन्य कवियों की तरह नहीं रखते थे। -
                    आज महाराज की शरण आय अपनी विपत अंगरेजन हू भाखी है।
                   नर नरनाहन सदा ही पातसाहन को विपति परै पै पति बाँधौपति राखी है।।
द्विवेदी युगीन कवि-त्रयी हंै मैथिली शरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्यय 'हरिऔध और ठा0 गोपाल शरण सिंह। रीवा के नर्इगढ़ी इलाकेदार ठा0 गोपाल शरण सिंह का सन 1891 में जन्म हुआ। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की —पा से आपने साहित्य में विशेष स्थान बनाया। खड़ी बोली को सजीव, मधुर और सशक्त बनाने वालों में आपका विशेष स्थान है। राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलनों में आपने अनेक स्थानों पर अध्यक्षता की। आपने उच्चकोटि का साहित्य सृजन किया है - माधवी, कादमिबनी, ज्योतिष्मती, संचिता, सुमना, सागरिका, ग्रामिका, आधुनिक कवि, विश्वगीत, पे्रमान्जली, शानित-गीत, मीरा और जगदालोक जो पुरष्—त हुर्इ। 'माधवी घनाक्षरी छन्दों में सरस व माधुर्य गुणों से भरपूर रचनाओं का संग्रह है। आपकी कविताओं में सामाजिक समस्याओं का निरूपण एवं जन जागरण का स्पष्ट स्वर है जो काव्य में अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
रीवा की धरती सदा साहित्यकार प्रसूता रही है और यहाँ के राजाओं द्वारा पोषित। सन 1880-81 में उर्दू लेखक मौलवी रहमान अली ने 'तवारिख-ए-बघेलखण्ड लेखन की शुरुआत की।16 महाराजा व्यंकटरमण सिंह ने हिन्दी को विशेष महत्व दिया और सन 1895 में हिन्दी को राज्य भाषा घोषित किया। महाराजा व्यंकटरमण सिंह के समय इस क्षेत्र (आज का मध्य प्रदेश) का प्रथम स्वतंत्र राष्टी्रय पत्र 'भारत भ्राता सन1914 के बाद महाराजा व्यंकटरमण सिंह के समय में निकला। जिसके सम्पादक श्री बलदेव सिंह थे।17 पणिडत मदन मोहन मालवीय ने इस पत्र की राष्टी्रय भावना और निर्भीकता की बहुत प्रशंसा की लेकिन अंग्रेज सरकार ने पत्र की प्रतियाँ और पे्रस जब्त कर लिया। सन
1918, श्री ब्रजरत्न भÍाचार्य के सम्पादन में 'शुभचिन्तक(सप्ताहिक) प्रकाशित होने लगा। सन 1920-21 के 'रीजेन्सी काल में सारे पत्रों का प्रकाशन बंद करा दिया गया। सन 1930 से 'प्रकाश महाराजा गुलाब सिंह की पे्ररणा से प्रकाशित होना प्रारंभ हुआ इसके सम्पादक रहे श्री नरसिंह राम शुक्ल, म0 अर्जुन सिंह, केशव प्रसाद चतुर्वेदी। गुलाब सिंह के सत्ता से हटने के बाद यह अनियमित रहा। श्री बलवन्त सिंह की प्रेरणा से कुँवर सूर्यबली सिंह एवं यादवेन्द्र सिंह के सम्पादकत्व में साहितियक मासिक पत्रिका 'बान्धव प्रकाशित हुर्इ लेकिन शुद्ध साहितियक होने की वजह से अल्प जीवी रही। श्री जगमोहन निगम भी इस पत्रिका से जुड़े हुए थे। इस क्षेत्र की पत्रिकाओं में कुँवर सूर्यबली सिंह ने सम्पादकीय लेखन और साहितियक समीक्षा की शुरुआत की।
कवि सुखराम जी के पुत्र महापात्र सीतल प्रसाद 'शीतलेश महाराज व्यंकटरमण सिंह एवं महाराजा गुलाब सिंह के दरबार के राजकवि रहे। आप ब्रज भाषा साहित्य के पणिडत थे और उन्होने 'गुलाब गौरव ग्रंथ लिखा जिसे 'गुलाब प्रकाश' भी कहा जाता है।
'शीतलेश जी के पुत्र ब्रजेश जी ने साहित्य शास्त्र का गहन अध्ययन किया। आपका जन्म सन 1871, सिलपरी ग्राम रीवा में हुआ। आपकी गणना ब्रज के आचार्य कवियों में की जाती है। आपके द्वारा रचित ग्रंथों में 'रमेश रत्नाकर, माधव विलास, विरह-वाटिका, सोरठ शतक, अलंकार निर्णय, रस रसांग-निर्णय, शान्त शतक, श्रृंगार-शिरोमणि, मोहन चरित्र माला, विश्वनाथ शरण भूषण, ब्रजेश विनोद हैं।
बख्शी हनुमान प्रसाद जी का जन्म 1872 र्इ0 में हुआ। आपने 'साहित्य सरोज नामक एक अलंकार ग्रंथ की रचना की। आप हिन्दी के अलावा उदर्ू और फारसी के ज्ञाता थे। बघेलखण्ड की धरती साहित्यकारों से अलं—त रही है, मेरा दुर्भाग्य है कि अध्ययन के दौरान स्वतंत्रता पूर्व के कर्इ कवियों के नाम जानकारी में आए लेकिन उनके साहित्य के पुण्य प्रसाद से वंचित रहा।
श्री गोविंद प्रसाद पाण्डेय :जन्म सन 1874। आप संस्—त, उदर्ू और फारसी के ज्ञाता थे। श्री भगवत प्रसाद, कवि राधिकेश जी, कवि मधुर जी, श्री हरिवंश प्रसाद श्रीवास्तव। कवि रामाधीन लालजी खरे : रीतिकाल की परंपरा के सफल कवि थे और प्रचुर मात्रा में साहित्य सृजन किया, लगभग 40 ग्रंथों की। स्वतंत्रता पूर्व काल मेें आप बहुत चर्चित व प्रतिषिठत साहित्य सृजक रहे। आप अपनी काव्य प्रतिभा के कारण ओरछा राजा के राजकवि हुए। इसी क्रम में अभी और साहित्यकार हैं जैसे आचार्य केशव के वंशज श्री श्याम सेवक मिश्र, कप्तान सम्पत कुमार सिंह, श्री बज्रपाणि सिंह 'पविपाणि, कप्तान यादवेन्द्र सिंह, कवि मनोहर सिंह, लाल महावीर सिंह बघेल, सरदार शत्रुसूदन सिंह, कवि हरशरण शर्मा 'शिव, श्री रामभद्र गौड़, श्री माधव प्रसाद और पणिडत चन्द्रशेखर शर्मा। पणिडत चन्द्रशेखर शर्मा का जन्म सन 1894 को रायपुर कचर्ुलियान रीवा में हुआ। आपकी रचनायें कर्इ बार पुरस्—त हुर्इं। कवि शेषमणि शर्मा 'मणि रायपुरी आपके पुत्र हैं। कवि लाल महाबली सिंह बघेल की 'गांधी गौरव रचना प्रकाशित हुर्इ है। कवि परशुराम जी पाण्डेय काफी प्रसिद्ध हैं। आपका बांधव झण्डागान रीवा राज्य के सभी पाठशालाओं में गाया जाता था और 'वह शकित हमें दो दयानिधे कर्तव्य मार्ग पर डट जावें...,इन्ही की रचना मानी जाती रही है लेकिन 'आजकल पत्रिका अंक नवंबर 2010 में इस कविता के कवि मुरारीलाल शर्मा 'बालबंधु का उल्लेख है। इनकी 'हरिकीर्तन, 'साकेत पथ एवं 'काव्य कलिका है। कवि अमिबका प्रसाद भÍ 'अमिबकेश : आपकी कविताओं में वीर रस और राष्ट्रप्रेम का स्वर प्रधान है। सन1941 में कविता संग्रह 'ज्योति प्रकाशित हुर्इ। श्री लखनप्रताप सिंह 'उरगेश':सन 1916 में जन्म हुआ, 'उल्कापात, 'आभा, 'प्रसाद,'अभिनयशाला एवं 'मानस परिचय आपकी रचनायें हैं। श्री भारत सिंह बघेल : जन्म सन 1905 ग्राम महसुआ रीवा में हुआ। आपकी 'विन्ध्य वैभव, 'बान्धव गान, 'देवतालाब महात्म्य, और 'विन्ध्य के प्राचीन ग्रंथ आदि हैं।
हिन्दी जगत में 'मिश्रबंधु समान रीवा में मान्य रहे हैं गधकार बंधुत्रय लाल —ष्णवंश सिंह, लाल भानु सिंह और लाल दयावान सिंह, साहित्य की हर विधाओं में पारंगत रहे हैं। समीक्षा विधा की पहचान बनाने वाले रहे हैं कुँवर सूर्यबली सिंह। इन्होने गध साहित्य को विभिन्न पाठयक्रमों तक पंहुचाया है।
कुँवर सूर्यबली सिंह परिहार का जन्म सन 1906 ग्राम रायपुर कचर्ुलियान, रीवा में हुआ। प्रो0 आदित्यप्रताप सिंह ने' हंस की उड़ान में लिखा है ''सूर्यबली सिंह ने न तो विश्वनाथ सिंह, रघुराज सिंह, ठा0 गोपाल शरण सिंह को बुर्जुआ कहकर खारिज किया है न दिनकर न अज्ञेय और न मुकितबोध की ही उपेक्षा की है - यहाँ तक कि गध लेखकों और आंचलिक कवियों पर भी मौखिक और लिखित रूप में साहितियक अनुशीलन वे करते रहे हैं।...आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और सूर्यबली सिंह की दृषिट और समीक्षा सृषिट ऐसी निर्जीवता से ग्रस्त नहीं है।...निसंदेह वे आचार्य शुक्ल के उत्तराधिकारियों में से एक हैं, उनका दोष केवल यह है कि वे काशी छोड़ रीवा चले आये। आपने आचार्य लाला भगवान दीन, पणिडत अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और आचार्य केशव प्रसाद मिश्र जैसे दिग्गजों से शिक्षा प्राप्त की। सन 1936 में बनारस हिन्दू विश्वविधालय से स्नातकोत्तर किया।
कुँवर सूर्यबली सिंह की प्रकाशित एवं प्रशंसित रचनायें : 'हिन्दी की प्रचीन एवं नवीन काव्य धारा (सन1936) वि0 प्रा0 हिन्दी साहित्य सम्मेलन रीवा से पुरस्—त, 'जीवन ज्योति, 'राजनीति परिचय, 'हिन्दी कविता, 'आधुनिक मराठी साहित्य, 'विधापति एवं 'सुभाषित। आचार्य शुक्ल —पण रहे हैं किसी लेखक की प्रशंसा करने में किन्तु सूर्यबली सिंह की —ति 'हिन्दी की प्रचीन एवं नवीन काव्य धारा में उन्होने  —पणता का त्याग करते लिखा है ''हिन्दी की प्रचीन एवं नवीन काव्य धारा में सूर्यबली सिंह एम ए ने दोनो धाराओं की विभिन्नता प्रकट करने वाली बहुत सी  विशेषताओं का अच्छा उदघाटन किया है। उन विशेषताओं की ओर ध्यान देने से दोनो प्रकार की कविताओं के स्वरूप का परिचय और वर्तमान कविता की भिन्न-भिन्न शाखाओं का आभास मिल जाता है। हमारे काव्य क्षेत्र में ज्यों ज्यों अनेक रूपता का विकास होता जायेगा त्यों त्यों ऐसी पुस्तकों की आवश्यकता बढ़ती जायेगी। उक्त पुस्तक में लेखक ने विभाव पक्ष, भाव पक्ष, कला तथा भाषा के आधार पर हिन्दी कविता का अध्ययन प्रस्तुत किया है। आप संगठन वादी कविता के पक्षधर नहीं है।
कुँवर सूर्यबली सिंह सन 1936-37 साहित्य समीक्षा संघ बनारस,  सन 1936-45 रघुराज साहित्य परिषद के प्रधान मंत्री, बांधव मासिक पत्रिका रीवा (सन 1942-44) के सम्पादक और स्वतंत्रता आन्दोलन (सन1942-44) में जेल यात्रा की। अध्ययन, लेखन एवं अध्यापन जीवन पर्यन्त रहा।
पदमभूषण शिवमंगल सिंह सुमन की बड़ी बहन कीर्ति कुँवरि का विवाह सन 1907 को महाराज व्यंकटरमण सिंह से हुआ, लेकिन सन 1918 को महाराज का देहान्त हो गया। महारानी ने अपना वैधव्य —ष्ण भकित और साहित्य को दिया। आपने कर्इ ग्रंथो का सृजन किया : 'श्री राधा—ष्ण विनोद भजनावली, 'भक्त प्रभाकर, 'कीर्ति रमण,'ज्ञानदीप,'कीर्ति सुधा,'श्री जगदीश कीर्ति शतक,'कीर्ति लता,'कीर्ति अष्टक,'कीर्ति शिरोमणि,'कीर्ति बहार,'कीर्ति निधि','कीर्ति त्रिवेणी,'श्रीबद्रीश, 'कीर्ति चिन्तामणि,'कीर्ति कौमुदी, 'कीर्ति जया,'कीर्ति किरण,'कीर्ति माधुरी, 'कीर्ति भाष्कर, 'कीर्ति गोविन्द,'कीर्ति प्रकाश,'कीर्ति गंगे,'कीर्ति पुष्पन्जली,'ज्ञानमाला,'कीर्ति प्रमोद,। आपकी रचनायें भ्कितरस प्रधान हैं। कुछ पंकितयाँ :
''यह कीर्ति अधीर पुकार रही सुनि लेहु —पा करि हे बनवारी,
आपन जान दया करिये हम तो निशिवासर शरण तुम्हारी।
''जब से उल्फत ने सताया जी कहीं लगता नहीं
 क्या करुँ उनके बिना बैचेन हूँ निशि याम री।
बघेलकाल राज्य विलियन सन 1948 तक के रीवा राज्य में साहित्य के प्रसिद्ध और भी हस्ताक्षर हैं। हिन्दी, उदर्ू, फारसी और अंग्रेजी के ज्ञाता, इतिहासकार प्रो0 अख्तर हुसैन निज़ामी जिन्होने इतिहास के धुंधलाये आइनों को साफ किया है। सन 1919 में 'रीवा राज्य दर्पण के लेखक श्री जीतन सिंह, 'रीवा राज्य का सैनिक इतिहास (सन 1937) लेखक- लाल जनार्दन सिंह और गुरू रामप्यारे अगिनहोत्री 'रीवा राज्य का इतिहास एवं प्रकाशित काव्य ग्रंथ 'प्रलाप।
महाराज व्यंकटरमण सिंह के दरबार में झुरवा अहीर मौजा देवखर त्यौंथर तहसील रीवा ने 'नैकहार्इ केर बिरहा सुनाया था जो शायद लिखित तो नहीं पर बहुत चर्चित हुआ।18 गध साहित्य में संख्या कुछ कम नहीं थी, श्री सिद्धविनायक द्विवेदी(उपन्यासकार), कथा साहित्य के शिल्पी रहे हैं लाल यादवेन्द्र सिंह माड़ौ रीवा। कवि कुँवर सोमेश्वर सिंह : जन्म सन 1910, आपके काव्य ग्रंथ हैं-'रत्ना, 'दृगजल, 'सरोज और ख्ुासरो। कवि सोमेश्वर सिंह सुप्रसिद्ध हिन्दी कवि ठा0गोपालशरण सिंह के सुपुत्र हैं।
बैजनाथ प्रसाद 'बैजू : जन्म सन 1910 को हुआ। आपका रचना काल सन 1935 से प्रारंभ होता है। सूकितयों का एक संग्रह 'बैजू की सूकितयाँ के नाम से सन 1940 को प्रकाशित हुआ। कुँवर सूर्यबली सिंह ने बैजू को उन गिने चुने कवियों में माना है ''जो सामान्य भाषा को अपना कर अपनी आवाज सर्व सामान्य तक पंहुचाने वाले हैं। रिमहीं (बघेली) की यह रचना भाषा की सशक्तता और छन्द चयन के कारण विशेष है। कवि ने अपने अनुभवों को व्यक्त करने का अनूठा तरीका अपनाया है। बड़ी खूबसूरती से प्रचलित देशीय मुहावरों का प्रयोग हुआ है। कुल मिलाकर आप रिमहीं के जनप्रिय कवि हैं।
 आइए अब कवि शेषमणि शर्मा 'मणि की बात करें। इनका जन्म रायपुर कचर्ुलियान में सन 1916 को हुआ। इन्हे सन 1953 में विन्ध्य प्रदेश शासन से प्रबंध —ति 'कैकेयी पर व्यास पुरस्कार प्रदान किया गया था। अन्य रचनायें :'मणिकिरण, 'द्वितीया,'बागी की डायरी,'अन्तध्र्वनि,'क्रानित की चिनगारियाँ और 'जग-जीवन है।
अवधी को जायसी और तुलसी मिले। बघेली को बैजू और सैफू आदि।19 पूरा नाम सैफुद्दीन सिद्दकी 'सैफू : जन्म 1 जुलार्इ 1924, प्रकाशित काव्य संकलन 'दिया बरी भा अजोर, 'भारत केर माटी की जानकारी मिली है। डा0 भगवती प्रसाद शुक्ल के शब्दों में ''सैफू सच्चे अर्थों में बघेली के समर्थ और प्राणवान कवि हैं।      ''बिन पखना मेंड़राय सरग मा, रहय लपेटे सूत।
               सैफू कहँय बताबा ककऊ, कउन आय इया भूत।20
 यहाँ की धरती बाणभÍ की कार्यस्थली है। क्या राजा क्या आम जन, हिन्दी, संस्—त, उदर्ू, फारसी, 'अउ बघेली में सृजन करने वाले कम नहीं थे, न हैं, न होंगे। 000    
----- संदर्भ ------
1.कुँवर सूर्यबली सिंह :मध्य युगीन साहित्य को रीवा की देन ।
2.डा0 धीरेन्द्र वर्मा : हिन्दी भाषा का इतिहास।
3. प्रो0 आदित्य प्रताप सिंहरविरंजन सिंह :अजीत फतेह बघेलखण्ड का आल्हा की साहितियक पृष्ठ भूमि से।
4. अजीत फते रायसा : पं. रामभद्र गौड़।
5. रविरंजन सिंह : 'रीवा तब अउर अब' पृ.21।
6. महाकवि ब्रजेश : प्रो0 —ष्ण चन्द्र वर्मा पृ. 11-12।
7. बिपिन बिहारी मिश्र :विशाल भारत,फरवरी1946 ।
8.हिन्दी नाटक उदभव और विकास पृ. 166।
9-10-.कुँवर सूर्यबली सिंह :मध्य युगीन साहित्य को रीवा की देन।
11. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-हिन्दी साहित्य का इतिहास।
12. असद खान :बघेलख्ण्ड की स्थापत्य कला।
13. कुँवर सूर्यबली सिंह :मध्य युगीन साहित्य को रीवा की देन।
14. रविरंजन सिंह : प्रो0 अख्तर हुसैन निज़ामी की डायरी।
15.कुँवर सूर्यबली सिंह :मध्य युगीन साहित्य को रीवा की देन।
16. डा0 दिवाकर सिंह :बघेल राजपूत की पाण्डुलिपि।
17.श्रीमती स्नेहलता तिवारी :बघेलखण्ड की पत्र पत्रिकायें
18. प्रो0 अख्तर हुसैन निज़ामी : अजीत फते नायक रायसा बघेलखण्ड का आल्हा पृ.221।
19. डा0 सूर्यभान सिंह :बघेली व्याकरण
20.उत्तर- पतंग

2 comments:

  1. विंध्य प्रदेश के साहित्य और साहित्यकारों की दुर्लभ एवं ज्ञानवर्धक जानकारी प्राप्त हुई। आलेख पढ़ कर गौरवान्वित हुआ कि विंध्य प्रदेश के साहित्यकार राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकारों के समकक्ष साहित्य जगत में अपना स्थान रखे हुए थे।
    बघेली साहित्य के क्षेत्र में कार्य करने वाले विंध्य के साहित्यकारों से संबंधित जानकारी को सतत करने की जरूरत है। और जानकारियों की प्रतीक्षा में- सुधा कान्त मिश्र "बेलाला" बघेली साहित्यकार

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  2. अत्यंत सराहनीय पहल

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